भारतीय संस्कृति में खेती केवल जीविका का साधन नहीं, बल्कि जीवन और प्रकृति के बीच संतुलन का माध्यम रही है। लगभग 70 वर्ष पूर्व तक हमारे देश में उत्पादित अनाज, फल, सब्जियाँ और डेयरी उत्पाद स्वादिष्ट, सुगंधित और पौष्टिक होते थे। दूध-घी, रोटी की खुशबू पड़ोसी तक पहुँचती थी। उस समय खेती पूरी तरह प्राकृतिक और जैविक पद्धतियों पर आधारित थी। किंतु आधुनिक समय में अधिक उत्पादन की लालसा ने हमें रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भर कर दिया, जिससे न केवल भूमि की उर्वरता नष्ट हुई, बल्कि मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी गहरा संकट उत्पन्न हो गया।
रासायनिक खेती से समस्या
हरित क्रांति के बाद भले ही उत्पादन में वृद्धि हुई, लेकिन इस प्रक्रिया में भूमि की जैविक शक्ति धीरे-धीरे समाप्त होने लगी। असंतुलित खाद और कीटनाशकों के प्रयोग सेः
- मिट्टी का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है।
- पानी और वायु प्रदूषित हो रहे है।
- अनाज, फल और सब्जियों में जहरीले तत्व बढ़ गए।
- कैंसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप और हृदय रोग जैसी बीमारियाँ तेजी से फैलने लगीं।
इस प्रकार रासायनिक खेती ने हमें अल्पकालिक लाभ तो दिया, लेकिन दीर्घकाल में यह स्वास्थ्य, पर्यावरण और जीवन के लिए संकट बन गई।
जैविक खेती क्या है ?
जैविक खेती वह कृषि पद्धति है जिसमें रासायनिक खाद, कीटनाशक और खरपतवार नाशक का प्रयोग नहीं किया जाता। इसके स्थान पर प्राकृतिक उपाय अपनाए जाते हैं, जैसेः-
- पशुओं का गोबर और मूत्र
- फसल अवशेष और हरी खाद
- वर्मी कम्पोस्ट
- नीम, लहसुन, धतूरा, मिर्च आदि से बने जैविक कीटनाशक घोल आदि।
- जीवाणु आधारित खाद (बायो-फर्टिलाइज़र)
इस पद्धति से मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है, फसलें स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक होती हैं तथा पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है। भारत में प्राचीन काल से ही जैविक खेती प्रचलित रही है। कविवर घाघ ने भी अपनी रचनाओं में गोबर, नीम की खली और प्राकृतिक खादों के

महत्व का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि :
“गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़़ै,
सन के डंठल खेती छिटावै, तिनके लाभ चौगुने पावै,
गोबर, मैला, नीम खली, से, खेती दूनि फलै,
वही किसानी में है पूरा, जो छोड़े हड्डी का चूरा।
इससे स्पष्ट है कि हमारी पूर्वज पीढ़ियाँ जैविक खेती की महत्ता को भली-भाँति समझती थीं। आज केवल फसल उत्पादन ही पर्याप्त नहीं है। हमें एकीकृत कृषि प्रणाली अपनानी होगी, जिसमें –
- फसल उत्पादन
- बागवानी और फल उत्पादन
- सब्जी उत्पादन
- पशुपालन
- मधुमक्खी पालन
- मत्स्य पालन और वानिकी
सभी गतिविधियाँ एक साथ चलें। इससे एक घटक का अवशेष दूसरे के काम आएगा। उदाहरण के लिए, पशुओं के गोबर से खाद बनेगी, फसल अवशेष पशुओं का चारा बनेंगे और मधुमक्खियाँ परागण करके उपज बढ़ाएँगी। इस प्रकार यह एक सतत कृषि चक्र का निर्माण करेगा।
जैविक खेती के लाभ
- स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी – इसमें रासायनिक तत्व नहीं होते, इसलिए यह सुरक्षित और पौष्टिक होती है।
- पर्यावरण संरक्षण – मिट्टी, जल और वायु प्रदूषण से बचते हैं।
- मृदा की उर्वरता में वृद्धि – जैविक खादें भूमि को दीर्घकाल तक उपजाऊ बनाए रखती हैं।
- रोजगार और आत्मनिर्भरता – किसान अपने संसाधनों से खाद और कीटनाशक तैयार कर सकते हैं।
- जैव विविधता का संरक्षण – केंचुआ, मेंढक, मधुमक्खी आदि जीव-जंतु सुरक्षित रहते हैं।
चुनौतियाँ और सीमाएँ
- जैविक खेती की लागत रासायनिक खेती की तुलना में 40-50ः अधिक होती है।
- किसानों में जागरूकता की कमी है।
- विपणन और वितरण प्रणाली अभी मजबूत नहीं है।
- उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान उत्साहित नहीं हो पाते।
भारत सरकार कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जैविक और प्राकृतिक खेती गुणवत्ता नियंत्रण केंद्र (गाजियाबाद) स्थापित किया गया है। यहाँ से समय-समय पर जैविक उर्वरकों का परीक्षण और विश्लेषण किया जाता है। साथ ही ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ जैसी योजनाओं से किसानों को सहायता प्रदान की जा रही है।
कोविड-19 और बदलती सोच
कोविड-19 महामारी ने लोगों की सोच बदल दी। अब लोग स्वास्थ्य और सुरक्षित भोजन को प्राथमिकता देने लगे हैं। जैविक उत्पादों में अधिक पोषक तत्व पाए जाते हैं और वे लंबे समय तक सुरक्षित रहते हैं। यही कारण है कि जैविक खेती की ओर रुचि तेजी से बढ़ी है।
भारत में जैविक खेती की स्थिति
भारत में संगठित रूप से जैविक खेती का आरम्भ मध्य प्रदेश राज्य में वर्ष 2001-2002 में हुआ। सिक्किम तो पूर्णतः जैविक राज्य घोषित हो चुका है। वर्तमान में भारत जैविक खेती करने वाले देशों में अग्रणी स्थान पर है। थ्प्ठस् सर्वेक्षण 2021 के अनुसार, वर्तमान में विश्व के 187 देशों में जैविक खेती की जा रही है, जिनमें भारत का विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान है। विश्व के कुल जैविक उत्पादकों में भारत का योगदान लगभग 30ः है। भारत में जैविक खेती का क्षेत्रफल लगभग 2.30 मिलियन हेक्टेयर दर्ज किया गया है। हाल के वर्षों में पूरे देश में जैविक कृषि भूमि में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जो इस दिशा में किसानों और सरकार दोनों के प्रयासों का सकारात्मक परिणाम है।
व्यक्तिगत अनुभव
मैं इंदिरा नगर, लखनऊ में रहते हुए अपनी तीसरी मंजिल की छत पर वर्ष 2008 में एक छोटा-सा खेत तैयार किया। इस खेत में मैं यमित रूप से अपने घर के किचन से निकलने वाले जैविक कचरे को दफनाता हूँ। समय-समय पर “सजीवक वर्मी कम्पोस्ट” का भी प्रयोग करता रहता हूँ। महेंद्र सचान जी छत पर खेती कर ताज़ी सब्ज़ियाँ तोड़ते हुए। जिससे फसल में चार चाँद लग जाते है।
इस प्रयास का परिणाम यह है कि मेरी छत पर लौकी, तरोई, कद्दू, मूली, टमाटर, बैंगन, खीरा, चौराई, पालक, खरबूजा, करेला आदि नेक प्रकार की सब्जियाँ मौसमानुसार निरंतर उगती रहती हैं। इन फसलों का स्वाद और पौष्टिकता इतनी उत्तम होती है कि हर नई फसल देखते ही बनती है।
मेरे परिवार में जितनी सब्जियों का उपयोग होता है, उससे कहीं अधिक उत्पादन हो जाता है। शेष बची हुई उपज मैं अपने शुभचिंतकों और परिचितों को भी बाटता रहता हूँ। यदि किसी को जैविक खेती से जुड़ी सलाह या बीज की आवश्यकता हो, तो लेखक से संपर्क कर सकते है।

इस संबंध में टीवी चैनल कृषि दर्पण द्वारा रिकॉर्ड किए गए मेरे वीडियो और फोटो भी उपलब्ध हैं, जिन्हें मैं इच्छुक लोगों को उत्साहवर्धन हेतु साझा कर सकता हूँ।
मित्रों, मेरा यह छोटा-सा अनुभव यह प्रमाणित करता है कि “जैविक है तो जीवन है।”
वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए यह कहना उचित होगा कि जैविक खेती केवल विकल्प नहीं बल्कि मानव अस्तित्व की आवश्यकता है। यदि हमें स्वस्थ जीवन, स्वच्छ पर्यावरण और सुरक्षित भविष्य चाहिए तो रसायनों से दूर रहकर जैविक खेती को अपनाना ही होगा। और रसायन युक्त जहरीले भोजन से बचना होगा।